श्री भजनलाल शर्मा
माननीय मुख्यमंत्री
श्री गजेन्द्र सिंह
माननीय चि. एवं स्वा. मंत्री
मलेरिया |
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एड्स |
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वायरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को साधारण लोग पीलिया के नाम से जानते हैं। यह रोग बहुत ही सूक्ष्म विषाणु(वाइरस) से होता है। शुरू में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं पडते हैं, परन्तु जब यह उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते हैं, लोग इसे पीलिया कहते हैं। जिन वाइरस से यह होता है उसके आधार पर मुख्यतः पीलिया तीन प्रकार का होता है वायरल हैपेटाइटिस ए, वायरल हैपेटाइटिस बी तथा वायरल हैपेटाइटिस नान ए व नान बी। |
रोग का प्रसार कैसे?
यह रोग ज्यादातर ऐसे स्थानो पर होता है जहॉं के लोग व्यक्तिगत व वातावरणीय सफाई पर कम ध्यान देते हैं अथवा बिल्कुल ध्यान नहीं देते। भीड-भाड वाले इलाकों में भी यह ज्यादा होता है। वायरल हैपटाइटिस बी किसी भी मौसम में हो सकता है। वायरल हैपटाइटिस ए तथा नाए व नान बी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के नजदीकी सम्पर्क से होता है। ये वायरस रोगी के मल में होतें है पीलिया रोग से पीडित व्यक्ति के मल से, दूषित जल, दूध अथवा भोजन द्वारा इसका प्रसार होता है।
ऐसा हो सकता है कि कुछ रोगियों की आंख, नाखून या शरीर आदि पीले नही दिख रहे हों परन्तु यदि वे इस रोग से ग्रस्त हो तो अन्य रोगियो की तरह ही रोग को फैला सकते हैं।
वायरल हैपटाइटिस बी खून व खून व खून से निर्मित प्रदार्थो के आदान प्रदान एवं यौन क्रिया द्वारा फैलता है। इसमें वह व्यक्ति हो देता है उसे भी रोगी बना देता है। यहॉं खून देने वाला रोगी व्यक्ति रोग वाहक बन जाता है। बिना उबाली सुई और सिरेंज से इन्जेक्शन लगाने पर भी यह रोग फैल सकता है।
पीलिया रोग से ग्रस्त व्यक्ति वायरस, निरोग मनुष्य के शरीर में प्रत्यक्ष रूप से अंगुलियों से और अप्रत्यक्ष रूप से रोगी के मल से या मक्खियों द्वारा पहूंच जाते हैं। इससे स्वस्थ्य मनुष्य भी रोग ग्रस्त हो जाता है।
रोग कहॉं और कब?
ए प्रकार का पीलिया तथा नान ए व नान बी पीलिया सारे संसार में पाया जाता है। भारत में भी इस रोग की महामारी के रूप में फैलने की घटनायें प्रकाश में आई हैं। हालांकि यह रोग वर्ष में कभी भी हो सकता है परन्तु अगस्त, सितम्बर व अक्टूबर महिनों में लोग इस रोग के अधिक शिकार होते हैं। सर्दी शुरू होने पर इसके प्रसार में कमी आ जाती है।
रोग के लक्षण:-
ए प्रकार के पीलिया और नान ए व नान बी तरह के पीलिया रोग की छूत लगने के तीन से छः सप्ताह के बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।
बी प्रकार के पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) के रोग की छूत के छः सप्ताह बाद ही रोग के लक्षण प्रकट होते हैं।
पीलिया रोग के कारण हैः-
रोगी को बुखार रहना।
भूख न लगना।
चिकनाई वाले भोजन से अरूचि।
जी मिचलाना और कभी कभी उल्टियॉं होना।
सिर में दर्द होना।
सिर के दाहिने भाग में दर्द रहना।
आंख व नाखून का रंग पीला होना।
पेशाब पीला आना।
अत्यधिक कमजोरी और थका थका सा लगना
रोग किसे हो सकता है?
यह रोग किसी भी अवस्था के व्यक्ति को हो सकता है। हॉं, रोग की उग्रता रोगी की अवस्था पर जरूर निर्भर करती है। गर्भवती महिला पर इस रोग के लक्षण बहुत ही उग्र होते हैं और उन्हे यह ज्यादा समय तक कष्ट देता है। इसी प्रकार नवजात शिशुओं में भी यह बहुत उग्र होता है तथा जानलेवा भी हो सकता है।
बी प्रकार का वायरल हैपेटाइटिस व्यावसायिक खून देने वाले व्यक्तियों से खून प्राप्त करने वाले व्यक्तियों को और मादक दवाओं का सेवन करने वाले एवं अनजान व्यक्ति से यौन सम्बन्धों द्वारा लोगों को ज्यादा होता है।
रोग की जटिलताऍं:-
ज्यादातार लोगों पर इस रोग का आक्रमण साधारण ही होता है। परन्तु कभी-कभी रोग की भीषणता के कारण कठिन लीवर (यकृत) दोष उत्पन्न हो जाता है।
बी प्रकार का पीलिया (वायरल हैपेटाइटिस) ज्यादा गम्भीर होता है इसमें जटिलताएं अधिक होती है। इसकी मृत्यु दर भी अधिक होती है।
उपचार:-
रोगी को शीघ्र ही डॉक्टर के पास जाकर परामर्श लेना चाहिये।
बिस्तर पर आराम करना चाहिये घूमना, फिरना नहीं चाहिये।
लगातार जॉंच कराते रहना चाहिए।
डॉक्टर की सलाह से भोजन में प्रोटिन और कार्बोज वाले प्रदार्थो का सेवन करना चाहिये।
नीबू, संतरे तथा अन्य फलों का रस भी इस रोग में गुणकारी होता है।
वसा युक्त गरिष्ठ भोजन का सेवन इसमें हानिकारक है।
चॉवल, दलिया, खिचडी, थूली, उबले आलू, शकरकंदी, चीनी, ग्लूकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली आदि कार्बोहाडेट वाले प्रदार्थ हैं इनका सेवन करना चाहिये
रोग की रोकथाम एवं बचाव
पीलिया रोग के प्रकोप से बचने के लिये कुछ साधारण बातों का ध्यान रखना जरूरी हैः-
खाना बनाने, परोसने, खाने से पहले व बाद में और शौच जाने के बाद में हाथ साबुन से अच्छी तरह धोना चाहिए।
भोजन जालीदार अलमारी या ढक्कन से ढक कर रखना चाहिये, ताकि मक्खियों व धूल से बचाया जा सकें।
ताजा व शुद्व गर्म भोजन करें दूध व पानी उबाल कर काम में लें।
पीने के लिये पानी नल, हैण्डपम्प या आदर्श कुओं को ही काम में लें तथा मल, मूत्र, कूडा करकट सही स्थान पर गढ्ढा खोदकर दबाना या जला देना चाहिये।
गंदे, सडे, गले व कटे हुये फल नहीं खायें धूल पडी या मक्खियॉं बैठी मिठाईयॉं का सेवन नहीं करें।
स्वच्छ शौचालय का प्रयोग करें यदि शौचालय में शौच नहीं जाकर बाहर ही जाना पडे तो आवासीय बस्ती से दूर ही जायें तथा शौच के बाद मिट्टी डाल दें।
रोगी बच्चों को डॉक्टर जब तक यह न बता दें कि ये रोग मुक्त हो चूके है स्कूल या बाहरी नहीं जाने दे।
इन्जेक्शन लगाते समय सिरेन्ज व सूई को 20 मिनट तक उबाल कर ही काम में लें अन्यथा ये रोग फैलाने में सहायक हो सकती है।
रक्त देने वाले व्यक्तियों की पूरी तरह जॉंच करने से बी प्रकार के पीलिया रोग के रोगवाहक का पता लग सकता है।
अनजान व्यक्ति से यौन सम्पर्क से भी बी प्रकार का पीलिया हो सकता है।
स्वास्थ्य कार्यकर्ता ध्यान दें
यदि आपके क्षेत्र में किसी परिवार में रोग के लक्षण वाला व्यक्ति हो तो उसे डॉक्टर के पास जाने की सलाह दें।
क्षेत्र में व्यक्तिगत सफाई व तातावरणीय स्वच्छता के बारे में बताये तथा पंचायत आदि से कूडा, कचरा, मल, मूत्र आदि के निष्कासन का इन्तजाम कराने का प्रयास करें।
रोगी की देखभाल ठीक हो, ऐसा परिवार के सदस्यों को समझायें।
रोगी की सेवा करने वाले को समझायें कि हाथ अच्छी तरह धोकर ही सब काम करें।
स्वास्थ्या कार्यकर्ता सीरिंज व सुई 20 मिनिट तक उबाल कर अथवा डिसपोजेबल काम में लें।
रोगी का रक्त लेते समय व सर्जरी करते समय दस्ताने पहनें व रक्त के सम्पर्क में आने वाले औजारों को अच्छी तरह उबालें।
रक्त व सम्बन्धित शारीरिक द्रव्य प्रदार्थो पर कीटाणुनाशक डाल कर ही उन्हे उपयुक्त स्थान पर फेंके अथवा नष्ट करें।
जरा सी सावधानी-पीलिया से बचाव
हॉर्मोन्स या शरीर की अन्तःस्त्रावी ग्रंथियां द्वारा निर्मित स्त्राव की कमी या अधिकता से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते है जैसे मधुमेह, थयरॉइड रोग, मोटापा, कद संबंधी समस्याऍं, अवॉंछित बाल आना आदि इंसुलिन नामक हॉर्मोन की कमी या इसकी कार्यक्षमता में कमी आने से मधुमेह रोग या डाइबीटीज मैलीट्स रोग होता है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2025 में भारत में दुनिया के सबसे अधिक पॉंच करोड, सत्तर लाख मधुमेह रोगी होंगे। विकसित देशों में यह रोग बढने से रोका जा रहा है किन्तु विकासशील देशों में खासकर भारत में ये एक महामारी की भॉंति विकराल रूप लेता दिखाई देता है। प्रतिवर्ष विश्व में लाखों मधुमेह रोगियों की अकाल मृत्यु या आकस्मिक देहांत हो जाता है, जबकि जीवन के इन अमूल्य वर्षो को बचाकर सामान्य जीवनयापन किया जा सकता है।
तेजी से बढते शहरीकरण, आधुनिक युग की समस्याऍं व तनाव, अचानक खानपान व रहन-सहन में आये परिवर्तन एवं पाश्त्यकरण (फास्ट फूड, कोकाकोला इंजेक्शन) प्रचुर मात्रा में भोजन की उपलब्धता व शारीरिक श्रम की कमी के कारण मधुमेह हमारे देश में आजकल तेजी से बढ रहा है। मधुमेह या शूगर रोग में रक्त में ग्लूकोस सामान्य से अधिक हो जाता है और ग्लूकोस के अलावा वसा एवं प्रोटीन्स के उपापचन भी प्रभावित होते हैं ये रोग किसी भी उम्र में हो सकता है भारत में 95 प्रतिशत से ज्यादा रोगी वयस्क है।
प्रमुख लक्षणः-
वजन में कमी आना।
अधिक भूख प्यास व मूत्र लगना।
थकान, पिडंलियो में दर्द।
बार-बार संक्रमण होना या देरी से घाव भरना।
हाथ पैरो में झुनझुनाहट, सूनापन या जलन रहना।
नपूंसकता।
कुछ लोगों में मधुमेह अधिक होने की संभावन रहती है, जैसे-मोटे व्यक्ति, परिवार या वंश में मधुमेह होना, उच्च रक्तचाप के रोगी, जो लोग व्यायाम या शारीरिक श्रम कम या नहीं करते हैं शहरी व्यक्तियों को ग्रामीणो की अपेक्षा मधुमेह रोग होने की अधिक संभावना रहती है।
मधुमेह रोग की विकृतियॉः-
शरीर के हर अंग का ये रोग प्रभावित करता है, कई बार विकृति होने पर ही रोग का निदान होता है और इस प्रकार रोग वर्षो से चुपचाप शरीर में पनप रहा होता है।
कुछ खास दीर्घकालीन विकृतियॉः-
प्रभावित अंग प्रभाव का लक्षण
नेत्र समय पूर्व मोतिया बनना, कालापानी, पर्दे की खराबी(रेटिनापैथी) व अधिक खराबी होने पर अंधापन।
हदय एवं धमनियॉ हदयघात (हार्ट अटैक) रक्तचाप, हदयशूल (एंजाइना)।
गुर्दा मूत्र में अधिक प्रोटीन्स जाना, चेहरे या पैरो पर या पूरे शरीर पर सूजन और अन्त में गुर्दो की कार्यहीनता या रीनल फैल्योर।
मस्तिष्क व स्नायु तंत्र उच्च मानसिक क्रियाओ की विकृति जैसे- स्मरणशक्ति, संवेदनाओं की कमी, चक्कर आना, नपुंसकता (न्यूरोपैथी), लकवा।
निदानः-
रक्त में ग्लूकोस की जॉंच द्वारा आसानी से किया जा सकता है। सामन्यतः ग्लूकोस का घोल पीकर जॉंच करवाने की आवश्यकता नही होती प्रारंभिक जॉंच में मूत्र में ऐलबूमिन व रक्त वसा का अनुमान भी करवाना चाहिए।
उपचारः-
मात्र रक्त में ग्लूकोस को कम करना मधुमेह का पूर्ण उपचार नहीं है उपयुक्त भोजन व व्यायाम अत्यंत आवश्यक है।
कुछ प्रमुख खाद्य वस्तुऍं ज्रिन्हे कम प्रयोग में लाना चाहिए।
नमक, चीनी, गुड, घी, तेल, दूध व दूध से निर्मित वस्तुऍं परांठे, मेवे, आइसक्रीम, मिठाई, मांस, अण्डा, चॉकलेट, सूखा नारियल
खाद्य प्रदार्थ जो अधिक खाना चाहिए।
हरी सब्जियॉं, खीरा, ककडी, टमाटर, प्याज, लहसुन, नींबू व सामान्य मिर्च मसालों का उपयोग किया जा सकता है। आलू, चावल व फलों का सेवन किया जा सकता है। ज्वार, चना व गेहूं के आटे की रोटी (मिस्सी रोटी) काफी उपयोगी है सरसों का तेल अन्य तेलों (सोयाबीन, मूंगफली, सूर्यमुखी) के साथ प्रयोग में लेना चाहिए भोजन का समय जहॉं तक संभव हो निश्चित होना चाहिए और लम्बे समय तक भूखा नही रहना चाहिये।
भोजन की मात्रा चिकित्सक द्वारा रोगी के वजन व कद के हिसाब से कैलोरीज की गणना करके निर्धारित की जाती है।
करेला, दाना मेथी आदि के कुछ रोगियों को थोडा फायदा हो सकता है किन्तु केवल इन्ही पर निर्भर रहना दवाओ का उपयोग न करना निरर्थक है।
उपचार का दूसरा पहलू है व्यायाम- नित्य लगभग 20-40 मिनट तेज चलना, तैरना साइकिल चलाना आदि पर पहले ये सुनिश्चित करना आवश्यक है कि आपका शरीर व्यायाम करने योग्य है कि नहीं है। योगाभ्यास भी उपयोगी है। बिल्कुल खाली पेट व्यायाम नहीं करना चाहिए।
भोजन में उपयुक्त परिवर्तन व व्यायाम से जहॉं एक ओर रक्त ग्लूकोस नियंत्रित रहता है वहीं दुसरी ओर शरीर का वजन संतुलित रहता है ओर रक्तचाप नियंत्रण में मदद भी मिलती है।
दवाऍः-
बच्चों में मधुमेह का एकमात्र इलाज है इंसुलिन का नित्य टीका। वयस्को में गोलियों व टीके का उपयोग किया जा सकता है। ये एक मिथ्या है कि जिसे एक बार इंसुलिन शुरू हो गयी है उसे जिन्दगी भर ये टीका लगवाना पडेगा गर्भावस्था में इन्सुलिन ही एक मात्र इलाज है।
विकसित देशों में मधुमेह के स्थायी इलाज पर खोज जारी है और गुर्दे के प्रत्यारोपण के साथ-साथ पैनक्रियास प्रत्यारोपण भी किया जा रहा है, हालांकि ये अभी इतना व्यापक और कारगर साबित नहीं हुआ है।
मधुमेह रोगियो को क्या सावधानियॉं बरतनी चाहिएः-
नियमित रक्त ग्लूकोस, रक्तवसा व रक्त चाप की जॉंच।
निर्देशानुसार भोजन व व्यायाम से संतुलित वजन रखें।
पैरो का उतना ही ध्यान रखें जितना अपने चेहरे का रखते हैं क्योंकि पैरो पर मामूली से दिखने वाले घाव तेजी से गंभीर रूप ले लेते हैं ओर गैंग्रीन में परिवर्तित हो जाते हैं जिसके परिणाम स्वरूप पैर कटवाना पड सकता है।
हाइपाग्लाइसिमिया से निपटने के लिए अपने पास सदैव कुछ मीठी वस्तु रखें, लम्बे समय तक भूखे न रहें।
धूम्रपान व मदिरापान का त्याग।
अनावश्यक दवाओं का उपयोग न करें।
अचानक दवा कभी बन्द न करें।
सरकार द्वारा एड्स, टी.बी, मलेरिया, कुष्ठ रोग आदि पर करोडो रूपये खर्च किये जाते हैं जिसके अच्छे नतीजें सामने आ रहे है इसी प्रकार आवश्यकता है मधुमेह का भी श्रेणी में लाकर इससे प्रभावी तरीके से निबटा जाये।
हेपेटाइटिस बी आज एक स्वास्थ्य समस्या के रूप मे उभर कर सामने आ रहा है। हेपेटाइटिस बी से फैलने वाला पीलिया का रोग शुरू से समय तो अन्य हेपेटाइटिस वायरस के समान ही होते है। जैसे रोगी व्यक्ति का शरीर दर्द करता है, हल्का बुखार, भूख कम हो जाती है। उल्टी होने लगती है। इसके साथ ही पेशाब का व आंखो का रंग पीला होने लगता है।
प्र. हेपेटाइटिस (पीलिया ) के लक्षण क्या है ?
उ.-
-हल्का बुखार, बदन दर्द
- भूख कम लगना
- उबकाई व उल्टी
- पीली ऑखे व पीला पेशाब
प्र. राजस्थान मे हाडोती मे इन दिनों दो स्थानों पर अचानक पीलिया के अधिक रोगी एक साथ हो गये उसका क्या कारण है?
उ. अचानक जब कभी एक स्थान पर पीलिया के रोगी अधिक हो जाते हे उसे पीलिया का एपिडेमिक कहा जाता है। इन दोनो स्थानों पर गंदे नाले के टूटने से दूषित जल के स्वच्छ पीने के पानी मे मिल जाने से पीलिया वायरस ई के कीटाणु फैल गये।
प्र. क्या हेपेटाइटिस ए वयस्को मे भी हो जाता है?
उत्तर . जी हॉ, यह वयस्को में हो सकता है। ऐसा पाया गया कि हेपेटाइटिस ए के वायरस रोगी व्यक्ति के मल से विसर्जित होकर धूल-मिट्टी में मिल जाते है। जब बच्चे खेलते -कूदते उनके सम्पर्क में आते हैं तो स्वस्थ बच्चे में हल्की मात्रा में वायरस पहुंच कर उसके खिलाफ प्रतिरोधात्मक शक्ति बना देते है, मगर जब से सभ्रान्त, धनी परिवार के बच्चे ऐसी धूल-मिट्टी के सम्पर्क में नही आ पाते है तो यह प्रतिरोधात्मक शक्ति नही बन पाती वयस्क उम्र में ऐसे बच्चों को हेपेटाइटिस ए होने की संभावना बढ जाती है।
प्र. यह हेपेटाइटिस बी का वायरस किस प्रकार फैलता है?
उ. साधारणतया यह वायरस रोगी के रक्त मे रहता है जब भी स्वस्थ व्यक्ति रोगी के दूषित रक्त से संक्रमित इंजेक्शन की सुई बिना टैस्ट किये खून चढाने वास्ते उपयोग मे लेगा अथवा दूषित रक्त अगर पलंग पर जमा हो व किसी व्यक्ति की चमडी मे दरार होता उसमे प्रवेश कर जाता है।
सक्रमित मॉं के रक्त से नवजात शिशु के सम्पर्क मे आने से बच्चें के भी सक्रमित हो जाने की सभावना होती है।
सक्रंमित खून, इजेंक्शन सुई चढाने से मॉ से बच्चे में।
प्र. आपने संक्रमण या रोग फैलने के कारण बताये क्या ऐसी सावधानियां है जिन्हे आम आदमी को व्यवहार मे बरतना चाहिए?
उ.सभी व्यक्तियो को निम्न सावधानियां रखनी चाहिए -
- किसी चोट लगे व्यक्ति से खून के सम्पर्क मे आने पर या संक्रमित सुई चूभ जाने पर या रक्त के हाथ पर गिर जाने पर।
- सभी पैरामैडिकल व डाक्टर्स मरीजों के घावो के इलाज के समय या ऑपरेशन के समय या रक्त सम्बन्धित टैस्ट करते समय।
- सदैव सुरक्षित, कीटाणु रहित नई व सिरिज का उपयोग करे ग्लास सिरिंज व सुई 15 -20 मि. तक उबाल कर उपयोग करे।
-सदैव रक्त चढाने से पूर्व जॉचे कि रक्त हेपेटाइटिस बी वायरस के प्रति जांचा हुआ है।
- सुरक्षित यौन सम्बन्ध रखे पर स्त्री गमन न रखे या बार-बार साथी न बदले या ऐसे समय कन्डोम का उपयोग रखें।
प्र. इनके अलावा क्या कोई और उपाय है, जिससे बचाव हो सकता है?
उ. सावधानियों के अलावा रोग से प्रतिरोध करने वाले एण्टीबाडीज भी वैक्सवीनेशन द्वारा पैदा किये जा सकते है।
- ऐसे सभी व्यक्ति जिनमे हेपेटाइटिस बी वायरस मौजूदा नही है सभी उम्र व लिंग के व्यक्तियो को टीके लगवाना चाहिए।
-सभी नवजात शिशु को।
- हेपेटाइटिस बी वायरस से संक्रमित मां से उत्पन्न संतान को।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस टीके को ई.पी.आई. प्रोग्राम में शामिल किया है।
-टीका डेल्टाईट मॉंसपेशी (बायें हाथ की ऊपरी भुजा भाग में ही लगाना चाहिए)।
-यह 1 उस मात्रा में 17 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में व
-0.5 उस मात्रा 17 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में।
प्रथम टीका एक निश्चित तारीख।
द्वितीय टीका प्रथम टीके के एक माह बाद।
तृतीय टीका प्रथम टीके के 6 माह बाद लगवायें एक बार टीका लगाने के बाद एण्टीबॉडीज लगभग 10 वर्ष तक बनी रहती है।
दुबारा टीका लगाने की आवश्यकता नहीं होती।
हेपेटाइटिस बी से संबंधित कुछ आवश्यक जानकारी आप हमारे पाठकों को देना चाहिए।
-भारत में इससे 3 से 5 प्रतिशत व्यक्ति एच.आई.वी. से संक्रमित हैं।
-हर 20 व्यक्तियों में से एक व्यक्ति इससे ही ग्रसित है।
-लगभग 3 से 4 करोड व्यक्ति एच.आई.वी. से प्रभावित है।
-संक्रमित रोगियों में से आधों को यकृत सिरहासिस व यकृत कैंसर हो सकता है।
- तम्बाकू से द्वितीय कारण कैंसर या हैपेटाईटिस बी का संक्रमण है।
टीके लगवा कर इससे बचा जा सकता है।
-यह रोग भी एडस के समान अनियंत्रित यौन संबंधों से फैलता है।
-यह एड्स से भी ज्यादा खतरनाक है क्योंकि:-
- जहां एड्स के लिये 0.1 मि.ली. संक्रमित रक्त चाहिए वहां केवल 0.0001 मि.ली. यानि सूक्ष्म माञा से रोग फैल सकता है।
-यह एड्स वायरस से 100 गुना अधिक संक्रमित करने की क्षमता रखता है।
- जितने रोगी एड्स से एक साल में मरते हैं उतने हेपेटाइटिस बी में एक दिनमें मर जाते हैं।
हेपेटाइटिस बी के टीके लगवाकर बचा जा सकता है, एड्स का बचावी टीका उपलब्ध नही है।
प्र0 अपने बच्चे को हेपेटाइटिस बी से कैसे बचाये?
उ0 पीलिया जॉन्डिस का रोग सदियो से चला आ रहा है परन्तु केवल इस सदी मे ही पीलिया के विभिन्न कारणों का वर्णन हुआ है और इसका श्रेय जाता है मेडिकल तेकनालाजी मे हूई महत्वपूर्ण प्रगति को।
मेडिकल जान्डिस का आम कारण है वाइरल हेपेटाइटिस इस नाम के दो पहलू है वाइरल, यानी इस रोग का कारण वाइरस है और हेपेटाइटिस, जिसका अर्थ है कि यकृत (लीवर) मे सूजन है।
आमतौर पर लोगो की धारणा है कि सभी यकृत की बीमारिया शराब की अधिक माञा मे लेने से होती है। दरअसल 80 प्रतिशत हेपेटाइटिस का कारण है वाइरल संक्रमण अक्सर हेपेटाइटिस एक लक्षणहीन रोग होता है जिसके कोई बाहरी चिन्ह नजर नही आते हैं परन्तु हेपेटाइटिस का इलाज न हो तो रोगी लीवर फेलियर से कोमा मे पहुंच सकता है ओर अन्त मे उसकी मृत्यु हो सकती है।
लू ताप घात से आम जनता भली प्रकार से परिचित है एवं समय समय पर सरकार एव अन्य स्वयसेवी संस्थायें विभिन्न माध्यम से स्वास्थ्य शिक्षा एवं लू ताप घात से बचने के लिए जन जाग्रति पैदा करती रही है फिर भी पूर्व वर्षो की भांती इस वर्ष भी आम जनता के सूचनार्थ व ज्ञानार्थ पुन वर्णित किया जाता है ताकि लू और ताप घात से आम जनता बचाव कर सके।
इस गर्मी के प्रकोप मे लू से कोई आक्रान्त हो सकता है परन्तू बच्चे, गर्भवती महिलायें धुप में व दोपहर मे कार्यरत श्रमिक, यात्री, खिलाडी व ठण्डी जयवायु मे रहने वाले व्यक्ति अधिक आक्रान्त होते है।
लू तापघात के लक्षण
शरीर मे लवण एव पानी अपर्याप्त होने पर विषम गर्म वातावरण मे लू व ताप घात निम्नांकित लक्षणों के द्वारा प्रभावी होता है।
1. सिर का भारीपन एवं सिरदर्द।
2.अधिक प्यास लगना एवं शरीर मे भारीपन के साथ थकावट।
3. जी मचलना, सिर चकराना व शरीर का तापमान बढना।
4.शरीर का तापमान अत्यधिक (105 एफ या अधिक ) हो जाना व पसीना आना बन्द होना, मुंह का लाल हो जाना व त्वचा का सूखा होना।
5. अत्यधिक प्यास का लगना बेहोशी जैसी स्थिति का होना / बेहोश हो जाना।
6. प्राथमिक उपचार / समुचित उपचार के आभार मे मृत्यु भी सम्भव है।
उक्त लक्षण की लवण पानी की आवश्यकता व अनुपात विकृति के कारण होती है। मस्तिष्क का एक केन्द्र जो तापमान को सामान्य बनाये रखता है काम करना छोड देता है। लाल रक्त वाहिनियों मे टूट जाती है व कोशिकाओं मे जो पोटेशियम लवण होता है वह रक्त संचार मे आ जाता है जिससे ह्रदय गति व शरीर के अन्य अवयव व अंग प्रभावित होकर लू व ताप घात के रोगी को मृत्यु के मुंह मे धकेल देता है।
रक्त परिपत्र की व इससे पूर्व भेजे गये परिपत्र के सदर्भ मे स्वास्थ्य शिक्षा द्वारा प्रचार करे वैसे तो सभी चिकित्सक बचाव व उपचार जानते है परन्तु आपकी सामान्य जानकारी हेतु बचाव व उपचार के कुछ मुख्य बिन्दु पुनः उल्लेखित हैं -
लू व तापघात के बचाव के उपाय
1.लू व तापघात से प्रायः कुपोषित बच्चे, गर्भवती महिलाओ, श्रमिक आदि शीघ्र प्रभावित हो सकते है इन्हे प्रातः 10 बजे से सायं 6 बजे तक गर्मी से बचाने हेतु छायादार ठडे स्थान पर रहने हेतु रखने का प्रयास करें।
2.तेज धूप मे निकलना आवश्यक हो तो ताजा भोजन करके उचित मात्रा मे ठंडे जल का सेवन करके बाहर निकले।
3.थोडे अन्तराल के पश्चात ठंडे पानी,शीतल पेय, छाछ , ताजा फलो का रस का सेवन करते रहे।
4. तेज धुप मे बाहर निकलने पर छाते का उपयोग करे अथवा पतले कपडे से सिर व बदन को ढक कर रखे।
5.आकाल राहत कार्यो पर अथवा श्रमिको के कार्यस्थल पर छाया का पूर्ण प्रबन्ध रखा जावें ताकि श्रमिक थोडी देर मे छायादार स्थानो पर विश्राम कर सकें।
उपचार
1.लू व ताप घात से प्रभावित रोगी को तुरन्त छायादार ठंडे स्थानो पर लिटा दे।
2. रोगी की त्वचा को गीले कपडे से स्पन्ज करते रहे तथा रोगी के कपडो को ढीला कर दे।
3. रोगी होश मे हो तो उसे ठन्डा पेय पदार्थ देवे।
4. रोगी को तत्काल नजदीक के चिकित्सा सस्थान मे उपचार हेतु लेकर जावें।
गंभीर रोगियों को चिकित्सा संस्थानों मे दिये जाने वाला उपचार।
1.चिकित्सा संस्थानो मे एक वार्ड मे दो चार बैड लू तापघात के रोगियों के उपचार हेतु आरक्षित रखे जावे।
2.वार्ड का वातावरण कूलर या पंखे से ठन्डा पेयजल की व्यवस्था रखी जावें।
3. मरीज तथा उसके परिजनो के लिये शुद्व व ठन्डे पेयजल की व्यवस्था रखी जावे।
4.संस्थान मे रोगी के उपचार हेतु आपातकालीन ट्रे मे ओ.आर.एस., ड्रीपसेट, जी.एन.एस/जी.डी.डब्ल्यु/रिगरलेकटेक/लूड एवं आवश्यक दवाये तैयार रखी जावें।
5.चिकित्सक एव नर्सिग स्टाफ को इस दौरान ड्यूटी के प्रति सतर्क रखा जावें।
6 जन साधारण को लू तापघात से प्रभावित होने पर बचाव के उपायों की जानकारी प्रचार प्रसार के माध्यमो से दी जावें।
7. जिला स्तर पर सभी विभागों का सहयोग प्राप्त कर कार्यव्यवस्था को सुचारू रूप से बनाये रखा जावें।
मस्तिष्क ज्वर मेनिनजाईटिस एक बहुत खतरनाक संक्रामक रोग है जो किनाईसिरिया मेनिनजाईटिस (मेनिनगोकोकल) नामक जीवाणु के शरीर मे प्रवेश पाने और पनपने के कारण होता है। मस्तिष्क और रीड की हड़डी मे रहने वाली नाडियो की झिल्ली पर सूजन आ जाती है। यह रोग पूरे वर्ष होता रहता है। इसमे आप चलन भाषा मे गर्दन तोड बुखार भी कहते है।
रोग कैसे फैलता है
मरीज से सीधे सम्पर्क मे आने के तथा या उसके थूक अथवा छींक द्वारा सांस के माध्यम से यह रोग एक दूसरे व्यक्ति मे फैलता है। रोग के जीवाणु के शरीर मे प्रवेश करने के 3-4 दिन के पश्चात रोग के लक्षण प्रकट को जाते है। रोग उन व्यक्तियो द्वारा भी फैल जाता है जिनके नाक व गले मे इस बीमारी के जीवाणु बिना रोग उत्पन्न किये मौजूद रहते है। ये व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से स्वस्थ होते है, किन्तु इनके खांसने अथवा छींकने से रोग के जीवाणु वायुमण्डल मे प्रवेश पा जाते है एवं श्वांस द्वारा अन्य व्यक्ति मे प्रविष्ट होकर रोग उत्पन्न करते है।
लक्षण -
1. तेज बुखार के साथ, तेज सिर दर्द एवं जी मचलना उल्टियां इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है।
2. लक्षणो के अचानक प्रकट होना एवं रोगी की दशा मे तेजी की गिरावट आना इस बीमारी की विशेषता है।
3. एक स्वस्थ व्यक्ति को अचानक तेज बुखार, सिर दर्द एवं उल्टिया होने पर इस बीमारी का संदेह होना आवश्यक है।
इसके अलावा गर्दन जकडना एवं शरीर पर लाल रंग के चकते पडना भी इस बीमारी के प्रमुख लक्षण है।
रोग का प्रभाव -
शीघ्र उपचार ने होने पर रोगी की दशा तेजी से बिगडती है। कुछ ही घन्टो मे रक्तचाप तेजी से गिर जाता है और नब्ज कमजोर पड जाती है। रोगी बेहोशी की अवस्था के चला जाता है। इस बीमारी के लक्षणों का क्रम इतनी गति से चलता है कि शीध्र निदान एवं उपचार ही रोगी का इस जानलेवा बीमारी से बचा सकता है।
रोग किसको प्रभावित करता है ?
यह रोग किसी भी आयु वर्ग को प्रभावित कर सकता है लेकिन प्रकोप मुख्यतयाः बच्चो एवं किशोर वर्ग पर काफी अधिक होता है। घनी आबादी वाली गन्दी बस्तियो, जिनमे तंग मकानों मे अधिक लोग रहते है छात्रावास, बैरक एवं शरणार्थी शिविरों मे यह बीमारी तेजी से फेलती है।
बचाव के उपाय -
बचाव ही सर्वोत्तम उपचार है ऐसे घातक रोग से बचना ओर इसके प्रसार को रोकना सम्भव है।
1. भीड-भाड से यह रोग फेलता है अतः यथा सम्भव भीड-भाड वाले स्थानों से बचना चाहिए।
2. घरो के कमरों में शुद्व ताजा हवा व प्रकाश आने की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
3. चूकि यह संक्रामक रोग है अतः रोगी को अलग रखना बहुत जरूरी होना चाहिए।
4. रोगी के नाक मुंह या गले से निकलने वाले स्ञाव को उसके मुंह व नाक पर साफ कपडा रख कर, सम्पर्क मे आने वाले व्यक्तियो को रोग की छूत से बचाया जा सकता है।
5. रोगी की देखभाल करने वाले व्यक्तियो की भी छूत से बचाव हेतु अपने मुंह एवं नाक पर साफ कपडा रखना चाहिए।
6. रोगी के परिवार ओर सम्पर्क मे आने वाले कोट्राईमोक्साजोल (सेप्ट्रान) की गोलिया का सेवन कर रोग से बच सकते है। वयस्क को दो गोली सुबह शाम, पाच वर्ष तक के बच्चो के लिए 1/2 गोली सुबह व शाम, स्कुल जाने वाले बच्चो को 1 गोली सुबह व शाम चार दिन तक नियमित रूप से लेनी चाहिए। ये औषधियां चिकित्सक की सलाह से लेनी चाहिए।
7. रोगी के निरन्तर निकट सम्पर्क मे रहने वाले चिकित्सको एवं पेरामेडिकल कर्मचारियो को मस्तिष्क ज्वर निरोधक टीका लगवाना उपयोगी है इस टीके स 5-7 दिन मे रोग निरोधक क्षमता पैदा हो जाती है।
बीमारी को तत्काल रोकने हेतु कार्यवाही-
किसी भी रोगी को मे बीमारी के लक्षण पाये जाने पर रोग की जांच व निदान की तुरन्त व्यवस्था कराये। जांच उपरान्त बीमारी पाये जाने पर उनके परिवार जनो एवं सम्पर्क मे आने वाले व्यक्तियो को क्रोमोप्रोफाइलेक्सिस उपचार लेने हेतु जानकारी दी जावें।
बीमार से चिन्हित क्षेत्रों मे प्रभावी नियन्त्रण एवं रोकथाम की कार्यवाही करनेरेपिडरेस्पोन्स टीम आवश्यक दवाईयों तथा उपकरणो के साथ अविलम्ब भिजवाये तथा की गई कार्यवाही की सूचना निदेशालय के दूरभाष न0 2225624, 2229858 पर सम्पर्क कर आवश्यक निर्देश प्राप्त करे। प्रभावित क्षेत्र एवं आस पास 5 मील की परिधि मे सर्वे जांच एवं उपचार तथा रोकथाम की कार्यवाही करते हुये निदेशालय मे दैनिक सूचना भिजवाये। रोग के निदान जांच उपचार तथा रोकथाम बाबत् प्रचार प्रसार के माध्यम से जन साधारण को जानकारी दी जावे।
डेंग्यू बुखार |
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तीव्र श्वसन रोग क्या है?
श्वसन तंत्र का तीव्र संक्रमण नवजात एवं 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की मृत्यु का प्रमुख कारण है। अधिकांश ए.आर.आई. (तीव्र श्वसन रोग) निश्चित समय में स्वयं ठीक हो जाते हैं। श्वास लेने में सहायक अंग जैसे-नाक, गला, श्वास नली, फेंफडे एवं कान आदि अंगो के संक्रमण जिसमें श्वास लेने में भी कठिनाई हो सकती है, को तीव्र श्वसन रोग कहते है जुकाम गले में खराश, खांसी, श्वसन नली संक्रमण, निमोनिया एवं कान का संक्रमण, साइनोसाइटिस आदि तीव्र श्वसन रोगों की श्रेणी में आने वाली प्रमुख बीमारियॉं हैं।
लक्षण:-
बच्चे के नाक से पानी बहना/ नाक बन्द होना।
खांसी होना।
पसलियां चलना।
कान में दर्द अथवा कान में से मवाद आना।
गले में खराश होना।
श्वास की गति तेज होना एवं श्वास लेने में कठिनाई होना।
बुखार।
पीडित बच्चें की सही देखभाल कैसे करें?
बच्चों में खांसी/ लू एक विषाणु जनित रोग है जो एक निश्चित अवधि ( सामान्यतया 4 दिन से 14 दिन)के बाद अपने आप ठीक हो जाता है अतः रोग से पीडित बच्चे को उचित देखभाल की ज्यादा आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त खांसी, गले में खराश, बन्द नाक अथवा साधारण बुखार के लिये सामान्य घरेलू उपचार पर्याप्त है।
(अ) सामान्य देखभाल:-
बच्चें को आराम करने व अच्छी नींद लेने के लिए उसकी सहायता करना।
बच्चे को पीन के लिये घर में उपलब्ध पर्याप्त पेय पदार्थ दें।
बच्चें को अच्छा पौष्टिक आहार दे, तथा स्तनपान करने वाले शिशु को मां स्तनपान कराती रहें।
बच्चें को ठन्ड से बचाये एवं सामान्य तापमान में रखें अधिक गर्मी उचित नहीं है।
खुले हवादार कमरे में रखें जिसमें पर्यात मात्रा में खिडकी व रोशनदान हो।
यदि बच्चे को बुखार हो तो पैरासिटामोल की उचित खुराक चिकित्सक/ स्वास्थ्य कार्यकर्ता के परामर्श से दें।
(ब) बन्द नाक के लिये उपचार:-
नाक साफ करने के लिये साफ व नरम कपडा अथवा रूई का प्रयोग करना चाहिये।
बच्चे को नाक सिनकने व साफ करने का तरीका समझाएं।
नाक में जमा स्त्राव को साफ करने के लिये नार्मल सेलाईन (नमक का पानी) की बूंदें नाक में टपकाएं ताकि जमा हुआ स्त्राव मुलायम हो जाऐ और उसे आसानी से साफ किया जा सके।
(स) गले में खराश के लिये उपचार:-
बच्चे को कोई खाद्य पदार्थ या चूसने को दें, इससे मूंह में लार पैदा होती है जो गले की खराबी को कम करने में मदद करती है।
गर्म पेय पीने को दे शहद व नींबू के रस को गुनगुने पानी में मिलाकर देने से गले की खराश को कम करने में मदद मिलती है।
(द) खांसी के लिए उपचार:-
खांसी से राहत के लिये सबसे उचित तरीका तो यह है कि गले को पेय पदार्थ, या साधारण धरेलु उपचार में देय पेय पदार्थ से तर रखें।
बच्चे की पसली चलने, श्वास की गति तेज होन, श्वास लेने में कठिनाई होने, उसकी जीभ या होठ नीले पडने आदि की स्थिति में तुरन्त चिकित्सक से सम्पर्क करें।
दस्त रोग से होने वाली मौतों से बचाव |
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प्रश्नः पोलियो क्या है?
उतर पोलियो एक संक्रामक रोग है जो पोलियो विषाणु से मुख्यतः छोटे बच्चों में होता है। यह बीमारी बच्चें के किसी भी अंग को जिन्दगी भर के लिये कमजोर कर देती है। पोलियो लाईलाज है क्योंकि इसका लकवापन ठीक नहीं हो सकता है बचाव ही इस बीमारी का एक मात्र उपाय है
प्रश्नः पोलियो कैसे फैलता है?
उतरः मल पदार्थ में पोलिया का वायरस जाता है। ज्यादातर वायरस युक्त भोजन के सेवन करने से यह रोग होता है। यह वायरस श्वास तंत्र से भी शरीर में प्रवेश कर रोग फैलाता है।
प्रश्नः कैसे होती है पोलियो की पहचान?
उतरः पोलियो स्पाइनल कॉर्ड व मैडुला की बीमारी है। स्पाइनल कॉर्ड मनुष्य का वह हिस्सा है जो रीड की हड्डी में होता है।
पोलियो मॉंसपेशियों व हड्डी की बीमारी नहीं है।
प्रश्नः क्या पोलियो विषाणु से हमेशा लकवापन होता है?
नहीं, पोलियो वासरस ग्रसित बच्चों में से एक प्रतिशत से भी कम बच्चों में लकवा होता है।
प्रश्नः पोलियो बच्चों में ही क्यों ज्यादा होता है?
उतरः बच्चों में पोलियों विषाणु के विरूद्व किसी प्रकार की प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती है इसी कारण यह बच्चों में होता है।
प्रश्नः पोलियो से बचने के उपाय?
उतरः पोलियो विषाणु के विरूद्व प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न के लिए 'नियमित टीकाकरण कार्यक्रम' व 'पल्स पोलियो अभियान के उन्तर्गत पोलियों वैक्सीन की खुराकें दी जाती है। ये सभी खुराके 05 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
प्रश्नः पोलियो वैक्सीन में कौनसी दवा होती है?
उतरः ओरल पोलियो वैक्सीन का आविष्कार रूसी वैज्ञानिक डॉ. अल्बर्ट सेबिन ने सन् 1961 में किया था। ओर पोलियो वैक्सीन में विशेष प्रकिया द्वारा निष्क्रिय किये गये पोलियो के जीवित विषाणु होते हैं। इस विशेष प्रकिया में पोलियो विषाणु की बीमारी पैदा करने की क्षमता समाप्त कर दी जाती है, परन्तु से पोलियो बीमारी के विरूद्व प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न करती है।
प्रश्नः नियमित टीकाकरण कार्यक्रम के अन्तर्गत पोलियो की दवाई कब पिलाई जानी चाहिए?
उतरः जन्म पर, छठे, दसवें, व चौदहवें सप्ताह में फिर 16 से 24 माह की आयु के मध्य बूस्टर खुराक दी जानी चाहिए।
पोलियो की खुराक बार-बार क्यों पिलायी जाती है?
उतरः बार-बार और एक साथ खुराक पिलाने से पूरे क्षेत्र के 05 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों में इस बीमारी से लडने की एक साथ क्षमता बढती है, और इससे पोलियो विषाणु को किसी भी बच्चे के शरीर में पनपने की जगह नहीं मिलेगी, जिससे पोलियो का खात्मा हो जायेगा।
प्रश्नः क्या नवजात शिशु को यह दवा पिलानी जरूरी है?
उतरः जी हॉं बहुत जरूरी है। यह खुराक 1 घण्टे के नवजात शिशु को भी पिलानी जरूरी है निश्चित होकर अपने नवजात शिशु को पोलियो की खुराक दिलाऍं इससे किसी भी प्रकार का कोई खतरा नहीं है।
प्रश्नः जो बच्चा 5 से 8 बार पहले भी खुराक पी चुका हो, तो क्या फिर से उसे खुराक पिलानी चाहिए?
उतर जी हॉं कोई भी बच्चा तक तक सरक्षित नहीं है जब तक पोलियो के विषाणु का वातावरण से पूरी तरह सफाया नहीं हो जाता है।
प्रश्नः अगर बच्चा पोलियो की खुराक पीने के बाद उल्टी कर देता है तो क्या करना चाहिए?
उतरः बच्चे को पोलियो की खुराक दुबारा पिलानी चाहिए।
प्रश्नः अगर बच्चें के दस्त लगें हो या बुखार हो तो क्य बच्चें को पोलियो की खुराक देनी चाहिए?
उतरः हॉं बच्चे को बुखार, उल्टी, दस्त है तब भी पोलियो की खुराक देनी चाहिए।
प्रश्नः अगर बच्चें को नियमित टीकाकरण से पोलियो की खुराक मिल गयी हो तो क्या फिर भी अभियान में पोलियो की खुराक देने की आवश्यकता है?
उतरः हॉं अभियान के दौरान पिलाई गई खुराके अतिरिक्त खुराकें है। नियमित टीकाकरण के साथ इनको भी बच्चों को देना अत्यन्त आवश्यक है।
प्रश्न जिन बच्चो ने टीकाकरण के दौरान 1 या 2 दिन पहले पोलियो ड्रॉप पी हो तो भी क्या उन्हे अभियान के दौरान यह दवा पिलानी चाहिए?
उतरः हॉं यदि बच्चे ने नियमित टीकाकरण के दौरान 1 या 2 दिन पहले भी दवा पी हो तो भी उसे अभियान के दौरान पोलियो ड्रॉप पिलानी चाहिए।
टी.बी. की बीमारी क्या है।
टी.बी यानि क्षय रोग एक संक्रामक रोग है, जो कीटाणु के कारण होता है।
टी.बी. के लक्षण क्या है।
तीन सप्ताह से ज्यादा खांसी
बुखार विशेष तौर से शाम को बढने वाला बुखार
छाती में दर्द
वजन का घटना
भूख में कमी
बलगम के साथ खून आना
टी.बी. की जॉंच कहॉं।
अगर तीन सप्ताह से ज्यादा खांसी हो तो नजदीक के सरकारी अस्पताल/ प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र , जहॉं बलगम की जॉंच होती है, वहॉं बलगम के तीन नमूनों की निःशुल्क जॉंच करायें।
टी.बी. की जॉंच और इलाज सभी सरकारी अस्पतालों में बिल्कुल मुफ्त किय जाता है।
टी.बी का उपचार कहॉं।
रोगी को घर के नजदीक के स्वास्थ्य केन्द्र (उपस्वास्थ्य केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र एवं चिकित्सालयों) में डॉट्स पद्वति के अन्तर्गत किया जाता है।
उपचार अवधि 6 से 8 माह।
उपचार विधिः-
प्रथम दो से तीन माह स्वास्थ्य पर स्वास्थ्य कर्मी की सीधी देख-रेख में सप्ताह में तीन बार औषधियों का सेवन कराया जाता है। बाकी के चार -पॉंच माह में रोगी को एक सप्ताह के लिये औषधियॉं दी जाती है जिसमें से प्रथम खुराक चिकित्साकर्मी के सम्मुख तथा शेष खुराक घर पर निर्देशानुसार सेवन करने के लिये दी जाती है।
नियमित और पूर्ण अवधि तक उपचार लेने पर टी.बी. से मुक्ति मिलती है।
बचाव के साधन:-
बच्चों को जन्म से एक माह के अन्दर B.C.G. का टीका लगवायें।
रोगी खंसते व छींकतें वक्त मुंह पर रूमाल रखें।
रोगी जगह-जगह नहीं थूंके।
क्षय रोग का पूर्ण इलाज ही सबसे बडा बचाव का साधन है।
टी.बी रोग विशेषकर (85 प्रतशित) फेंफडों को ग्रसित करता है, 15 प्रतिशत केसेज शरीर के अन्य अंग जैसे मस्तिष्क, आंतें, गुर्दे, हड्डी व जोड इत्यादि भी रोग से ग्रसित होते हैं।
टी.बी. का निदान कैसे किया जाये?
टी.बी के निदान (पहचान) का सबसे कारगर एवं विश्वसनीय तरीका सुक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) के द्वारा बलगम की जांच करना है क्योंकि इस रोग के जीवाणु (बेक्ट्रेरिया) सुक्ष्मदर्शी द्वारा आसानी से देखे जा सकते हैं।
टी.बी रोग के निदान के लिये एक्स-रे करवाना, बलगम की जॉंच की अपेक्षा मंहगा तथा कम भरोसेमन्द है, फिर भी कुछ रोगियों के लिये एक्स-रे व अन्य जॉंच जैसे FNAC, Biopsy, CT Scan की आवश्यकता हो सकती है।
क्या सभी प्रकार के क्षय रोगियों के लिये डोट्स कारगर है?
डॉट्स पद्वति के अन्तर्गत सभी प्रकार के क्षय रोगियों को तीन समूह में विभाजित कर (नये धनात्मक गम्भीर रोगी पुरानी व पुनः उपचारित क्षय रोगी और नये कम गम्भीर रोगी) उपचारित किया जाता है। सभी प्रकार के क्षय रोगियों का पक्का इलाज डाट्स पद्वति से सम्भव है।
डॉट्स के टी.बी. अन्तर्गत टी.बी की चिकित्सा क्या है?
आज ऐसी कारगर शक्तिशाली औषधियां उपलब्ध है, जिससे टी.बी. का रोग ठीक हो सकता है परन्तु सामान्यतया रोगी पूर्ण अवधि तक नियमित दवा का सेवन नहीं करता हे सीधी देख-रेख के द्वारा कम अवधि चिकित्सा (Directly observed Treatment Short Course) टी.बी. रोगी को पूरी तरह से मुक्ति सुनिश्चित करने का सबसे प्रभावशाली तरीका है। यह विधि स्वास्थ्य संगठन द्वारा विश्वस्तर पर टी.बी. के नियन्त्रण के लिये अपनाई गई एक विश्वसनीय विधि है, जिसमें रोगी को एक-दिन छोडकर सप्ताह में तीन दिन कार्यकर्ता के द्वारा दवाई का सेवन कराया जाता है।
डॉट्स विधि के अन्तर्गत चिकित्सा के तीन वर्ग है, प्रथम, द्वितीय, तृतीय प्रत्यके वर्ग में चिकित्सा का गहन पक्ष(Intensive Phase) ओर निरन्तर पक्ष (Continuation Phase) होते हैं। गहन पक्ष (I.P.) के दौरान विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है तथा यह सुनिश्चित करना है, कि रोगी, औषधि की प्रत्येक खुराक स्वास्थ्य कार्यकर्ता, स्वयंसेवक, सामाजिक कार्यकर्ता, निजी चिकित्सा की सीधी देख-रेख में लवें निरन्तर पक्ष(C.P.) में रोगी को हर सप्ताह औषधि की पहली खुराक आपके सम्मुख लेनी है तथा अन्य दो खुराक रोगी को स्वयं लेनी होगी अगले सप्ताह का औषधि पैक ( बलस्टर पैक) लेने के लिये रोगी को पिछले सप्ताह का काम में लिय गया खाली बलस्टर पैक अपने साथ लाना आवश्यक है।
गहन पक्ष के दौरान हर दुसरे दिन, सप्ताह में तीन बार औषधियों का सेवन कराया जाता है। उल्लेखनीय है कि सप्ताह में तीन दिन की चिकित्या उतनी प्रभावी है, जितनी प्रतिदिन की चिकित्सा। निर्धारित दिन पर रोगी चिकित्सालय में नहीं आता है तो यह हमारा (डॉट्स प्रोवाईडर) उत्तरदायित्व है, कि रोगी को खोजकर उसको परामर्श, समझाईस द्वारा उस दिन अथवा अगले दिन औषधि का सेवन करायी जानी चाहिए।
गहन पक्ष (प्रथम वर्ग के रोगी) की 22 खुराकं और गहन पक्ष (द्वितीय वर्ग के रोगी) की 34 खुराकं पूरी होने पर रोगी के बलगम के दो नमूनें जॉंच के लिये लेने चाहिए, ताकि गहन पक्ष की उसकी सभी खुराकें पूरी होने तक जॉच के नतीजें उपलब्ध हो सकें यदि बलगम संक्रमित नहीं(Negative) है ता रोगी को निरन्तर पक्ष की औषधियां देना प्रारम्भ कर देना चाहिए यदि बलगम में संक्रमण(Positive) हो तो उपचार देने वाले चिकित्सक को रोगी के गहन पक्ष की चिकित्सा अवधि को ब्रढा देनी चाहिए।
टी.बी. उपचार वर्ग | क्षय रोगी |
सप्ताह में तीन दिन दिये जाने वाला उपचार समूह |
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गहन चरण | सतत चरण | ||
1 |
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2(HRZE)3 | 4(HRZE)3 |
2 |
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2(HRZE)3
1(HRZE)3 |
5(HRE)3 |
3 |
|
2(HRZ)3 | 4(HR)3 |
H-आइसोनाइजिड 600 मि.ग्रा. ( 300 मि.ग्रा.- दो गोली)
R- रिफाम्पिसिन 450 मि.ग्रा. (450 मि.ग्रा.-एक केप्सूल)
Z- पायराजिमाइड 600 मि.ग्रा. (700 मि.ग्रा.-दो गोली)
E- ईथाम्ब्यूटोल 600 मि.ग्रा. (600 मि.ग्रा- दो गोली)
S- स्ट्रेप्टोमाइसिन 0.75 ग्राम एक इन्जेक्शन
डोट्स प्रणाली का त्वरित विस्तार:-
टी.बी. पर प्रभावी नियन्त्रण के लिये राज्य सरकार कृत सकल्पित है। स्वस्थ एवं टी.बी. मुक्त राजस्थान के सपने को साकार करने के उद्वेश्य से उसने एक वर्ष की अल्पावधि (वर्ष 2000) में सम्पूर्ण प्रदेश में डॉट्स प्रणाली का त्वरित विस्तार ही नहीं किया बल्कि सेवाओं की गुणवता कायम रख ग्लोबल टारगेट अर्जित कर विश्व कीर्तिमान स्थापित किया है।
कार्यक्रम के अन्तर्गत टी.बी. की जॉंच एवं उपचार, सुविधायें िनम्न प्रकार उपलब्ध है।
1 | जिला क्षय नियन्त्रण केन्द्र | 32 (प्रत्येक जिले में) |
2 | टी.बी. यूनिट | 143 (सामान्य क्षेत्र में प्रत्येक 5 लाख की आबादी पर, मरूस्थलीय एवं जनजाति क्षेंत्रों में प्रत्येक 2.50 लाख की आबादी पर) |
3 | जॉंच केन्द्र (माइक्रोस्कोपी केन्द्र) | 680 (सामान्य क्षेत्र में प्रत्येक 5 लाख की आबादी पर, मरूस्थलीय एवं जनजाति क्षेंत्रों में प्रत्येक 50000 की आबादी) |
4 | उपचार केन्द्र | 1843 (प्रत्येक 20-30 हजार आबादी पर) |
5 | उपकेन्द्र/ ट्रीटमेंट आब्जर्वेशन पॉइन्ट | 1126 (प्रत्येक 3-5 हजार आबादी पर) |
सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की भूमिका:-
क्षय रोग पूरे देश में व्यापक रूप से फैला हुआ है केवल पचास प्रतशित रोगी ही सरकारी अस्पतालों से इलाज ले पाते है शेष पचास प्रतशित निजी चिकित्सकों , नर्सिग होम तथा निजी चिकित्सालयों के द्वारा उपचारित किये जाते हैं।
निजी चिकित्सक एवं नर्सिग होम जॅंहा रोगी के निकटतम तथा सुविधापूर्वक पहुंच में होते हैं, वहीं क्षय रोगियों का इनमें विश्वास भी गूढ होता है। अतः कार्यक्रम को व्यापक बनाने तथा उसकी सफलता के लिये इनका कार्यक्रम से जुडना अतिआवश्यक है। टी.बी. एक रोग ही नहीं बल्कि हमारे देश में चुनौती भरी सामाजिक, आर्थिक समस्या भी है, इसलिये इस रोग के नियन्त्रण का कार्य केवल सरकारी प्रयासों से सफल नहीं हो सकता। हालांकि राज्य में डॉट्स कार्यक्रम के अन्तर्गत रोगी ठीक होने की दर(Cure Rate) 85 प्रतशित से भी अधिक अर्जित करने में सफल रहा है, परन्तु कार्यक्रम को कायम रखने तथा रोगी खोज दर में वृद्वि करने हेतु सामुदायिक सहयोग आवश्यक है। गैर सरकारी संगठनों एवं निजी चिकित्सकों की समाज में प्रतिष्ठा सम्मान, विश्वसनियता तथा पहूंच है इसलिए कार्यक्रम में गैर सरकारी संगठनों एवं निजी चिकित्सकों की भागीदारी पर विशेष बल दिया गया है तथा उनकी भागीदारी के लिए निम्न आकर्षक योजनाऍं रखी गयी।
गैर सरकारी संगठनों के लिये योजनाऍ:-
योजना नं. | नाम | विवरण | सहायता | |
1 | स्वास्थ्य शिक्षा व दुरस्थ इलाकों में जानकारी देना | सूचना, शिक्षा व संचार गतिविधियों तथा काय्रक्रम के सम्बन्ध में जागरूकता उत्पन्न करना | सामग्री प्रशिक्षण एवं आमुखीकरण हेतु उपयुक्त एवं उपलब्ध साहित्य | नकद रू 5000/-10 लाख जनसंख्या के कवरेज पर |
2 | सीधी देखरेख में उपचार (डॉट्स) देना | गैर सरकारी संगठनों के कर्मचारी ओर स्वयंसेवकों द्वारा कार्यक्रम के अन्तर्गत रोगी को सीधी देख-रेख में उपचार (डॉट्स) देना | प्रशिक्षण एवं आमुखीकरण हेतु उपलब्ध साहित्य
उपचार पर रखे गये रोगियों के लिये औषधियां बलगम के नमूनों हेतु आवश्यक प्रपत्र |
रू 10000/- प्रत्येक 1 लाख जनसंख्या अथवा इसकी आनुपातिक जनसंख्या के लिये
आवश्यक हो तो रोगी ठीक होने पर 175/- हर स्वयंसेवक का |
3 | क्षय रोगी के अस्पताल में उपचार की व्यवस्था | आर.एन.टी.सी.पी. की निति के अनुरूप उपचार दिये जाये तथा निदान और उपचार में कार्यक्रम की निर्धारित नीतियों का सख्ती से पालन हो | प्रशिक्षण एवं आमुखीकरण हेतु उपयुक्त एवं उपलब्ध साहित्य
उपचार पर रखे गये रोगियों के लिये औषधियॉं आवश्यक प्रपत्र |
रू. 200000/- |
4 | माइक्रोस्क्रोपी एवं उपचार केन्द्र | गैर सरकारी संगठन माईक्रोस्कोपी एवं उपचार केन्द्र के रूप में काय्र करेगें तथा आर.एन. टी.सी.पी. की तरह जॉंच उपचार देगें | उपरोक्तानुसार आवश्यक प्रपत्र क्षय निरोधक औषधियॉं | रू. 50000/- |
5 | टी.बी. यूनिट | गैर सरकारी संगठनों द्वारा लगभग 5 लाख पर आर.एन.टी.सी. पी. की मार्गदर्शिका के अनुसार सेवायें उपलब्ध कराना
योजना वहॉं विचारणीय होगी जहॉं सरकारी सेवायें अपर्याप्त होगी |
क्रियान्वयन एवं प्रशिक्षण के लिये सामग्री
माईक्रोस्क्रापी तथा लैबोरेट्री के अपग्रेडेशन आदि |
रू. 3,25,500/- |
निजी चिकित्सो के लिये योजनाऍं:-
योजना नं. | नाम | विवरण |
सहायता |
|
सामग्री | नकद | |||
1 | रेफरल |
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10/- प्रति बलगम नमूना |
2 | सीधी देखरेख में उपचार (डॉट्स) देना | आर.एन.टी.सी.पी. मार्गदर्शिका के अनुसार पी.पी. अथवा दुसरे कर्मचारी द्वारा रोगी की सीधी देख-रेख में उपचार हेतु भेजना। |
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रोगी के उपचार पूर्ण करने अथवा ठीक होन पर 175/- प्रति रोगी डॉट्स प्रोवाईडर को देवें |
3 ए | डेजिग्नेटेड पेड माईक्रोस्क्रोपी केन्द्र माईक्रोस्क्रोपी | पी.पी.एक अधिकृत माईक्रोस्क्रोपी केन्द्र के रूप में कार्य कर सकता है। |
|
शून्य |
3 बी | डेजिग्नेटेड पेड माईक्रोस्क्रोपी सेन्टर माईक्रोस्क्रोपी एवं उपचार | 3ए योजना वर्णित सेवा क अतिरिक्त केन्द्र पर रोगियों को उपचार भी देना। |
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स्कीम 2 के अनुसार |
4 ए | डेजिग्नेटेड माईक्रोस्क्रोपी -सेन्टर सिर्फ माईक्रोस्क्रोपी | उपरोक्त केन्द्र आर.एन.टी.सी.पी. के अन्तर्गत माईक्रोस्क्रोपी सेवायें देने के लिये अधिकृत लेकिन रोगियों से ए.एफ.बी. माईक्रोस्क्रोपी हेतु शुल्क नहीं लिया जायेगा। | लैबोरेट्री की सामग्री | 15/- रू प्रति बलगम जॉंच |
4 बी | डेजिग्नेटेड पेड माईक्रोस्क्रोपी सेन्टर माईक्रोस्क्रोपी एवं उपचार | 4 ए में वर्णित कार्यो के अन्तर्गत रोगियों का उपचार सेवायें भी उपलब्ध करायेगें। |
|
15/- रू प्रति बलगम जॉंच |